Tuesday, April 13, 2010

बॉस को पत्र (उनकी पत्नी के साथ सोने के बाद)


आदरणीय बॉस,

शुक्रिया. शुक्रिया इस बात का कि आपने इस पत्र को पढने से पहले फाड़ा नहीं. कल की उस घटना के बाद कोई भी स्वाभिमानी पुरुष इस बात को कतई बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसकी प्राणप्रिया सहधर्मिणी के साथ रात्रि व्यतीत करने वाला इंसान उसे इस तरह चिट्ठी लिखने की धृष्टता करे.  और चिट्ठी भी ऐसी जिसमे अफसोस या क्षमा याचना की भनक तक ना हो. बल्कि उसमें यह बताने की कोशिश की गयी हो कि यह कार्य सर्वथा उचित था.

उफ़! यह तो हद है. एक तो गुनाह-ए-अज़ीम और ऊपर से गुनाह को जायज बताने की हिमाकत! आपने तो ऐसी आशा बिलकुल भी न की होगी. ऊपर से गुनाहगार भी कौन? आपके ऑफिस में काम करने वाला एक नाचीज़, दो कौड़ी का जूनियर जिसे कल तक आँख उठाकर बात करने की हिम्मत तक नहीं होती थी. आज उसका ये साहस कि आपके बिस्तर तक पहुँच गया. वैसे खबर तो ये है कि यह दो महीनों से होता आ रहा था, वो भी आपकी नाक के नीचे. और आपको खबर तक नहीं.

लेकिन किया भी क्या जा सकता है? ज़िंदगी में कई घटनाएँ  ऐसे ही घटती हैं. आपने उनकी कल्पना भी नहीं की होती और विधाता उनको आपके सामने पटक देता है.

लेकिन ये सब हुआ कैसे? जिज्ञासा का कीड़ा आपके मन में पीड़ा से कुलबुला रहा होगा. वो तरस रहा होगा कि ज्ञान की दो बूँदें उसकी जीभ पर टपकाई जाएँ और वह तृप्त हो जाए. उसकी तृष्णा विलुप्त हो जाए.

तो चलिए, आरम्भ से आरम्भ करते हैं.

सृष्टि का ये महान सत्य है कि कामेच्छा का काम-शक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है. पार्क में, पार्टियों में, बसों में आपने अपनी उम्र के कई बूढों का दर्शन किया होगा जिनमें स्त्री-संसर्ग की इच्छा तो तीव्र होती है, पर शरीर की वाहीनियाँ और पेशियाँ अपना सहयोग नहीं देतीं. इससे काम-हताशा या सेक्सुअल फ्रस्ट्रेशन का जन्म होता है. अब अगर दादाजी का विवाह अपनी पोती की उम्र की कन्या से हो जाये तो क्या होगा! अब पोतियाँ भी पहले जैसी तो रहीं नहीं. मन मुताबिक चीज न मिली तो इधर उधर मुंह मारना शुरू कर देती हैं. ऐसा ही कुछ आपके साथ हुआ. अब आपका भी क्या दोष? चढ़ती उम्र का इलाज़ तो होता नहीं. ऊपर से दारु और सिगरेट का शौक. मर्द दिखने के चक्कर में मर्दानगी का नुकसान कर बैठे. फिर आपने अपनी तरफ से पूरी कोशिश तो की ही थी. मीठी-मीठी बातें कीं, कवितायें लिखीं, महंगे उपहार दिए, बालों में रंग लगाया. पर उस चीज की कमी रह गयी.

ये तो हुआ घटना का एक पहलू. अब दूसरे पहली पर ध्यान देते हैं. वर्षों से डायबिटीज होने के कारण आपने शुगर लेना छोड़ दिया था. इसलिए आपके शरीर में मिठास की कमी हो गयी थी. और जुबान पर तो कुछ ज्यादा ही बुरा असर पडा. आपकी कड़वी बोली सुनकर यह ब्रह्मसत्य कोई भी जान सकता था. ऑफिस में आपकी दांत और फटकार सुन किसका मिजाज गर्म नहीं होता था? भला ये भी कोई तरीका है! आपके यहाँ नौकरी करते हैं; खुद को बेचा थोड़े ही है. मैंने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया. मुझे लगा कुछ तो आपको वापस मिलना चाहिए. तभी एक फ़ाइल पहुंचाने के दौरान आपकी युवा, सुन्दर, आकर्षक धर्मपत्नीजी से मुलाकात हुई. आगे की बातें विस्तार से सुनकर आपके दिल को और ज़ख्म नहीं पहुँचाना चाहता. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं. वही सब हुआ जो पिछले दो महीनों से होता चला आ रहा था. आपको तो कल पता चला. मैंने भी सोचा देर क्यूँ की जाए. आपका 'सरप्राइज गिफ्ट' आपको मिलना चाहिए.

एक तरह से देखिये तो मेरा कदम गलत भी नहीं था. आप हमेशा अपनी धर्म-संस्कृति की दुहाई देते हैं. धर्मग्रंथ तो पढ़े ही होंगे, और उनमें देवताओं के किस्सों पर ध्यान गया ही होगा. भगवन कृष्ण लड़कियों के अंतर्वस्त्र चुराकर भाग जाते थे. सोलह हज़ार आठ पत्नियां थीं उनकी. और फिर देवराज इन्द्र के क्या कहने? किसी सुन्दर स्त्री के किस्से सुने और चड्डी में हलचल शुरू हो गयी. गौतम की पत्नी अहिल्या को भी न छोड़ा. फिर सती अनुसूया की कहानी क्यूँ भूल जाएँ? ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों उनके सतीत्व का हनन करने पहुँच गए थे. ये तो हुई देवों की बात; ऋषि-मुनी और उनके शिष्य कम थोड़े ही थे. ऋषि अप्सराओं के साथ, उनकी पत्नियां शिष्यों के साथ. जी हाँ, ऐसी घटनाओं की कमी नहीं जहां शिष्य गुरुमाताओं के साथ भाग निकले थे. फिर मैंने कौन सा पाप किया? अपने  धर्म और संस्कृति की अस्मिता बनाए रखा. बस!

अब आख़िरी बात जिसे सुनने के लिए आपकी जान निकली जा रही है. आप समझ नहीं पा  रहे कि मुझमें इतना साहस कहाँ से आया? मैं आपसे ऐसी बातें कैसे कर ले रहा हूँ? क्या मुझे नौकरी खोने का डर नहीं है? डर तो है, बहुत है. पर मार्केट में प्रतिभा के पारखियों की कमी तो है नहीं. ऐसा ही एक पारखी मुझे भी मिल गया. पत्र के साथ त्यागपत्र भी भेज रहा हूँ.

आपका विश्वासी-
शंख 

एक प्रेमपत्र

प्रिये,

कैसी हो? खैर, अच्छी ही होगी.

कल सोचने बैठा. फिर लगा तुम्हारे बारे में सोचना चाहिए. आखिरकार तुम मेरी उद्घोषित प्रेमिका हो, और फिर हर प्रेमी का यह फ़र्ज़ है कि अपने जीवन का बड़े से बड़ा हिस्सा अपनी प्रेमिका के बारे में चिंतन करने में लगाए.

फिर मैं सोचने लगा अपने जीवन में आये उन बदलावों के बारे में जो तुम्हारे पदार्पण के बाद आये हैं. सच में, कितनी बदल गयी है मेरी ज़िंदगी! कितनी सीमित हो गयी है मेरी दुनिया! पहले मेरी ज़िंदगी में कितनी निरर्थक चीजें हुआ करती थी - दोस्त, आज़ादी, खुशी, अपने लिए समय और न जाने क्या क्या? अब मेरी ज़िंदगी में सिर्फ दो चीजें हैं - तुम और तुम्हारा प्यार.

तुम्हारा प्रेम भी बड़ा अनूठा है. थोड़ा हटकर है. यह प्रेम कुछ ऐसा ही है जैसा एक कंजूस सेठ अपनी तिजोरी से करता है. सेठ तिजोरी को तहे-दिल से प्यार करता है, उसे अपना सर्वस्व समझता है. किन्तु इस बात का ख्याल भी रखता है कि कहीं किसी और की नज़र उस तिजोरी पर ना पड़ जाए. अपनी तिजोरी का धन बांटने से पहले वो स्वर्गवासी होना पसंद करेगा. कुछ ऐसा ही तुम्हारे साथ है.

अगर इस दुनिया में कोई मेरी खुशी चाहता है तो वो तुम हो. तुम शायद अपनी खुशी से भी ज्यादा मेरी खुशी देखना पसंद करोगी. पर यहाँ एक छोटा सा पेंच है. तुम मुझे खुश तो देखना चाहती हो, पर सिर्फ अपने साथ. प्रलय आ जायेगी अगर तुमने मुझे किसी और के साथ प्रसन्नचित्त देख लिया. तुम्हारी आँखों से तप्त अश्रुओं के जलप्रपात गिरने शुरू हो जायेंगे. तुम्हारे मुख-कमल से अपशब्द सुसज्जित भाषा में तीक्ष्ण उलाहनों की वृष्टि प्रारम्भ हो जायेगी.

सच में सच्चा है तेरा प्यार. कितनों को नसीब होता है ये? पिछले जन्मों में जिन्होंने दुष्कर्मों की सीमा पार कर ली होगी, उन्हीं को इस जन्म में ऐसा प्यार मिलेगा. सभी की पात्रता नहीं होती ऐसी दुर्लभ चीजों के लिए.

तुम्हारे इस प्रेम ने मुझे जितना संतुष्ट और तृप्त किया है शायद किसी और चीज ने नहीं किया. यह तृप्ती इतनी गहरी है के कभे कभी इश्वर से प्रार्थना करने की इच्छा होती है, "हे नाथ! अब तो बस कर!"

मेरी आँखों से आंसू निकल रहे हैं. पर मैंने हिम्मत और आशा नहीं खोयी है. आस-पास अपने जैसे प्रताड़ितों को देखता हूँ तो लगता है मैं अकेला नहीं हूँ. सभी  प्रेम रोग के शिकार हैं. जब उन्होंने ने मुक्ति की आशा नहीं छोड़ी तो मैं क्यूँ छोडूं?

तुम्हारा और 'सिर्फ तुम्हारा'
- प्रेमी 

आकर्षण और साक्षात्कार



पाने की कोशिश में जो आकर्षण
पा जाने  में वो कभी नहीं
पाने पर मिलती सिर्फ रिक्तता
जिसकी कल्पना कभी की नहीं

जब चीज पास होती नहीं
हम पीछे दौड़ते जाते हैं
वो दिखती है जितनी कठिन
उतनी ही आकर्षक पाते हैं

यह आकर्षण भला या बुरा
योग्य-अयोग्य उचित-अनुचित
इस बात पर ध्यान न जाता
नहीं सोचते हित-अनहित

कई बार ऐसा होता है
असाधारण वस्तु होती निकट
तब हम उनका मोल न करते
ध्यान न देते, महत्त्व न देते

इसके विपरीत चीजें साधारण
जो होतीं दूर, दिखतीं अनमोल
उनकी चमक चुंधियाती आँखें
भले न उनमें कोई तौल

पा जाने पर खुलता रहस्य
वास्तविकता का मिलता अहसास
सोचते हम थे कितने मूढ़
पहेली न समझ पाए थे गूढ़

वस्तु के आकर्षण का
योग्यता से सम्बन्ध नहीं
आकर्षण तो आँखों में है
पीछे भागना सही नहीं

ध्यान देंगे तो पायेंगे
अच्छी चीजें होती सरल
शायद अनाकर्षक चमकहीन
पर उनका महत्त्व अचल.

सुख और दुःख


कुछ भी यहाँ टिकता नहीं, दुःख के हों पल या सुख के क्षण
क्षण-भंगुर इस जीवन में हर अनुभव मानो तुहिन कण.

सुख की प्रतीक्षा करते हम अनवरत सारा जीवन
तम से भरे इस रंगमंच पर खोजते वह मद्धिम किरण
रश्मियाँ तो आती हैं, कभी रुक-रुक कभी अविराम
पर आते ही विलुप्त हो जातीं, छोड़कर स्मृतियाँ अभिराम.

दुःख का भी विश्वास नहीं, पर उसकी उपस्थिति सघन
सुख की आंधी आते ही वीरान हो जाता उसका उपवन
विषाद की यह अंधी गलियाँ लगती भले ही अंतहीन
पर सुख के मोड़ बीच-बीच में करते हमारा भय क्षीण

सुख भी चिर रहता नहीं, दुःख का भी विश्वास कहाँ
दोनों ही अभिनेता प्रबल, पल-प्रतिपल बदलते भंगिमा
इन दोनों के प्रपंच में जो न अपनी आसक्ति जगाता
अशिरता के प्रभाव से विमुक्त आनंद सरिता में गोते लगाता. 

Monday, April 12, 2010

Learn Writing from the King

You don’t have to be a Stephen King fan to be a fan of this book. No matter what you want to write (except poetry), this book would add arrows to your quiver.
The first half of the book is full of King’s memoirs and his development as a writer. It will teach you at least two things. First, how important it is to avoid negative influence of somebody who looks down your work. Second, the importance of persistence.
He tells us how he was ridiculed and severely criticized by a lady teacher which had negative effect ob him for a long time. He felt ashamed of his writing and took a long time to get it over.
He also gives a quick lesson in persistence as he shares how his writings were rejected one by one for years. He had put a nail on his wall to hang the rejection slips. Later on he replaced it with a spike. Then a day came when he got his first encouraging letter from an editor. Since then he has been doing wonders.
The second half comes with the real meat, full of guidelines to improve one’s writing skill. King starts from the scratch by giving tips to work on the basic grammar. Then he goes on discussing how to develop a story plot through the metaphor of fossil. King also equips you mentally to face the challenges the lonely job of being a writer offers.
For those well-versed with his work, he gives detailed background about how he developed many of his novels. His fans are going to gain a lot more from this book, of course.
The only problem with this book, I feel, is its size. I wish it was heavy like the novels King writes. Then it would have been more fabulous.

नफरत ही सही

कुछ तो करो,
नफरत ही सही.

न मेरे जीने से फर्क पड़ता है,
न तुम्हें मेरे मरने से.
न मेरी प्रेम की कसमें  खाने से,
न घृणा के उगलते शोलों से.

एक शब्द की 
प्रतिक्रिया ही करो.
कुछ तो करो,
नफरत ही सही.

It will connect you

 Do you want cancer? Irrespective of whether you want it or not, please think about watching this movie. It has a hilarious start and a gripping storyline. 
A friend of mine strongly recommended me to watch this movie. I call her ‘air hostess’ because she is pretty and very, very well-mannered. So when the air hostess in the movies asks the hero ‘Do you want cancer’, my friend instantly remembered me and laughed. Well, you must watch the movie to discover the air hostess wasn’t offering ‘cancer’. I shouldn’t spoil the fun. 
The movie is about a guy whose job is to fire people by putting anesthetic words into their ears. And he is good at it. The fired people generally leave the chamber with a new enthusiasm as if getting fired was the best thing ever happened to them. 
When I watched theses scenes I had a déjà vu. Don’t our own bosses and the corporate guys use sugary language to make us avoid seeing the harm they are inflicting upon us? The movie shows it in a very funny and realistic way. 
As the storyline progresses, we see our hero going through various experiences and meeting two different women who affect his perspective towards life. But the movie ends on a not-so-happy note. Our hero achieves his professional goal (traveling 10 million miles) but doubts the satisfaction it gives him.  


When I am alone, not lonely

A few things always piss me off no matter how much self control I practice. The top most among them is the question related with my marriage. When are you going to get married? Isn’t your age ripe enough to settle down?
I don’t get the premise of this question. I mean why is it so important to get married? Should one get married because everybody else is getting married? Or should one assume that life is going to be hell if s/he doesn’t choose to get married before the deadline?
Now there is no concrete evidence which says married people are happier than the unmarried ones. There are happy and unhappy people in both categories. But I feel the question of marriage has its root somewhere else. I feel it has more to do with man’s eternal quest with loneliness.
Most of us feel lonely. We try to fill up the space with friends, hobbies, parties, outings and one dozen other things. They give us relief but not permanently. We have a hope that these must be at least one element which remains in our life forever and which can make us avoid feeling lonely.
Marriage comes as an answer. It gives us the hope that there would be someone who would always be there to share our happiness and grief no matter what happens. It shows a small ray as an escape from loneliness.
But what if somebody doesn’t feel lonely when people are not around him? Such people may be less in number but they do exist. I guess I am one of them.
If I count the happiest moments of my life, most of them were enjoyed in solitude. I loved reading some great book, I painted something or I just sat and did nothing. None of these required the presence of somebody else.
I was alone, not lonely. The difference is subtle but important. Being alone means being satisfied with oneself. Lonely means dissatisfaction with oneself and the need of others.
I would like to say I want to spend six out of ten hours with people and other four with myself. Marriage doesn’t seem to be helpful in this direction. It snatches away my opportunity of being with oneself.
So, is there any respite for people like me? The structure and demands of our society don’t give a favourable answer. They want us to be consistently with somebody else. They don’t respect space.
Maybe that’s the challenge. Either I remain unmarried or I devise a married relationship with proper scope for solitude. But I would like to be alone in either case. Because loneliness gets the best of me only when I don’t get opportunity to be with myself.

Friday, April 09, 2010

A cigarette between female lips





It was my sister’s wedding and three men were fighting. 
My mama was saying it’s wrong to let women smoke. Point to be noted is that he himself is fond of the white tobacco rolls. I and an old cousin of mine were arguing if something is wrong, it must be equally wrong for both men and women. 
Nowadays this kind of arguments has become more frequent. There is a reason for that. Women have become financially self-independent and they have stopped taking permission from the male bread-earners. They have also started doing things which only males used to do earlier. I don’t know what their intention behind that is. Maybe those women just want to enjoy things which were earlier restricted for them. Or maybe they want to prove to the men that they are not behind any more.
A woman with a cigarette between her lips arouses different emotions in different people. One most common emotion is of repulsion and hate. She must be cheap. The other common emotion is of respect. She is cool, strong and independent-minded. 
I think we should guess a woman’s personality on the basis of something more important and concrete than her smoking preferences. 
And we should also accept that if smoking is wrong, it shouldn’t be wrong only for women. And if it’s right, it shouldn’t be right only for men. 

Thursday, April 08, 2010

Life is not fair. Thank God!

It was my first day at the new office. And a lot of work was waiting for me along with a bouquet and pleasant smiles.  I was hungry so went to the office canteen. The canteen caretaker was sitting in a corner with his eyes glued on an English newspaper.
I have seen quite many canteen caretakers since my school days but never saw one reading an English newspaper. I was impressed and curious. When I started talking to him I came to know that he is not very educated but loves reading, so he learnt to read English on his own. He also loves reading books on various topics and has opinion on various issues.
It made me think about him and about myself. What is the difference between me and him? He is not less intelligent than me. Who knows he might be much better than me. He is curious, hardworking and has a strong desire to learn. But he keeps standing in pantry, cooking meals for the office. And I sit in my air-conditioned office, sipping free coffee, surfing on net and writing headlines for advertising which pays me much better.
What exactly did he lack that he couldn’t enjoy the lifestyle I enjoy? The answer is obvious. He was not born in a family which could afford good school and education for him. Despite being talented he didn’t have enough qualifications to have a chance in the white collar job market.
But I had everything which made me ‘good enough’ to get a nice job and be able to maintain a fine lifestyle. I was born in the right family, went to the right schools, got the right qualifications and became the right guy for my employers.
This small realization made me feel bad about him. But on a deeper level, I am afraid to say, I felt good. What if the canteen caretaker had the same opportunities I had? He would have been a strong competitor. What if everybody born on this earth had equal opportunities? The well-educated and talented people like me and many others who work is plush offices might have been forced to give way to the better ones from slums and backward castes.
I have always complained about life being unfair to me when things go wrong. But this time I am not complaining. Life is unfair, but it’s unfair to my advantage. And it doesn’t suck.

Wednesday, April 07, 2010

The Economics Sherlock Holmes

Did you know that your professional life in advertising/media/ publishing or any other second-tier glamorous job is very much similar to that of a gun-toting drug dealer? Maybe not. But an innovative approach towards Economics can prove that.  
Economics can arouse the terror of boredom in most of the people. Not anymore. Freakonomics proved this from the very first pages. In this book, the author challenges traditional wisdom and explores the reasons behind various phenomena with the eyes of a detective and the mind of an economist.
For example, your parents must have worked really hard to choose your name. After all, the name becomes your identity and, perhaps, also influences your life. But is it really so?
The book cites example of a father who named his two sons ‘Winner’ and ‘Loser’. Not joking. He really named them like this. When researchers followed their career graphs many years down the line, the results were surprising. ‘Loser’ joined police force and became a respectable detective. And ‘Winner’ had a lengthy criminal record decorated with nearly three dozen arrests for burglary, domestic violence, and other mayhem.
There are many such themes which the author has explored. And he has ended up finding the reasons behind many phenomena which were completely unexpected and unseen by the experts.
But the real gift of the book goes more than just exploring these themes and surprising you with results. It also creates a doubt in your mind. A doubt on your firm belief in traditional wisdom.
You might start thinking about the things happening in your life with a new approach. You might like to find out the real reason behind them, not the old and accepted one. You would love turning into a detective in your own way. 

Get ready to influence, not be influenced

This book is a lovely read from the first to the last page. But what amused me most was the example of ISKCON.
People from this organization were badly in need of donation. So they started offering flowers to people coming out of airports and railway stations. Then they used the principle of “Reciprocation” and requested those people to donate. After accepting the free gift (in this case, the flower), they were in a moral dilemma and ended up donating money. This strategy was a turning point for the finances of ISKCON.
I have been victimized by the same strategy used by a political party for money. They put a badge on my shirt with a smile, and when I was ready to move they showed the receipt book of donation with a bigger smile.
As I read through the book I couldn’t stop thinking how the six strategies discussed here were unconsciously used by me and used upon me by people.
I feel this book must be read by everybody, not just marketers and businessmen. This book is a series of enlightening experiences. After you finish it, it would be difficult for others to make you fall prey to the universal tactics of persuasion (or manipulation, if you are more blunt).