Remember onions? There’s a quality in them. No, not that they make you weep while you slaughter them. But that they have layers under layers in them. A thing we find in things around us too. They have different meanings, personalities and characters beneath the skin. But we sometimes miss to see them. This blog is an effort to explore those layers in an amusing way.
Monday, May 22, 2017
Thursday, May 11, 2017
एक ही खोज
कल शाम दिल्ली में मेट्रो से यात्रा करते समय एक बड़ी दिलचस्प चीज देखने को मिली। मेट्रो तकरीबन एक तिहाई खाली थी। मालवीय नगर में रुकते ही थोड़ा शोरगुल हुआ और कुछ लोग बड़ी तेज़ी से अंदर घुसे। सामान्यतः ऐसा राजीव चौक पर होता है। पर न तो यह राजीव चौक था, और न ही ऑफिस से वापस आने का वक़्त था जब भीड़ ज़्यादा होती है। ये लोग हरियाणा के शायद किसी गाँव से थे। इनमें कुछ छोटे बच्चे थे, बच्चों की माँ थी, बच्चों की दादी थी, और बच्चों के पापा और चाचा थे। ये सारे लोग मेट्रो में जिस उत्साह से घुसे, उससे लगा कि चंद्रमा पर जाने वाले अंतरिक्षयान में घुस रहे हों।
घुसने के बाद ये लपककर अपनी-अपनी पसंदीदा सीटें खोजने लगे। शायद खिड़की के पास की सीट खोज रहे थे। अब चूंकि मेट्रो में सारी सीटें खिड़की के पास होती हैं, इसलिए उन्हें ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। उसके बाद बच्चे और उनकी अम्मा-दादी बड़ी दिलचस्पी से खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगे। बच्चों की दादी को सीट पर बैठना ज़्यादा पसंद नहीं आया इसलिए वो फर्श पे बैठ गईं (माना कि ऐसा करके वो नियम तोड़ रही थीं, पर नियम तो विजय माल्या भी तोड़ता है)।
कुछ देर वो शांत बैठे रहे। मैं भी अपनी किताब में खो गया। फिर अचानक वो खुशी से चिल्लाने लगे और मेरे बगल में आकर खिड़की से देखने लगे। मेरी समझ में नहीं आया कि अचानक क्या हुआ। एक बच्चे ने चिल्लाकर कहा, ‘कुतुब मीनार, कुतुब मीनार!’ सारे के सारे खुश हो गए। मैंने भी खिड़की से देखा। दूर पेड़ों के बीच कुतुब मीनार अपना सर उठाए खड़ा था। उनका उत्साह देखकर मैं हतप्रभ था।
कुतुब मीनार के गायब होते ही वो शांत हो गए। लगभग पाँच मिनट बाद फिर उनमें उत्साह की हलचल हुई। इस बार वो ‘हवाई जहाज’ चिल्ला रहे थे। मैंने खिड़की से देखा तो एक एरोप्लेन उड़ान भर रहा था। वो सारे बच्चे और उनकी अम्मा बड़े घ्यान से टकटकी लगाकर उसे देखे जा रहे थे। उनकी दादी फर्श पर बैठे कोई मंत्र जाप कर रही थी। पर वो भी कनखियों से उस एरोप्लेन को देखने की कोशिश कर रही थी। बच्चों के पापा भी अपना लालच कंट्रोल नहीं कर पा रहे थे। वो भी लोहे की चिड़िया को देखने लगे।
कुछ देर बाद मेरा स्टेशन आया और मैं उतर गया, पर उनलोगों का उत्साह और उनकी खिलखिलाहट मेरे जेहन में बस गए थे। इस मेट्रो से मैंने हजारों लोगों को यात्रा करते देखा है। लेकिन उनके चेहरे पर बोरियत के अलावा कभी कुछ नहीं दिखा। मैंने भी सैकड़ों बार यात्रा की है। मैंने भी बोरियत मिटाने के लिए या तो किताब पढ़ी है या फिर अपने स्टेशन के आने का इंतज़ार किया है। फिर हरियाणा के किसी गाँव के परिवार को इस मेट्रो में ऐसा क्या दिख गया कि वो इतने प्रफुल्लित थे?
थोड़ी देर बार मुझे जवाब मिल गया। बड़ा ही साधारण सा जवाब था। शायद वो पहली बार यात्रा कर रहे थे। उन्हें मेट्रो में नयापन दिखा। रोज यात्रा करने वालों को इसमें कोई नयापन नहीं दिखता। इसलिए वो बोर होते रहते हैं। फिर मेरी समझ में आया कि किसी भी चीज में कुछ खास नहीं होता। उसका नयापन ही उसे खास बना देता है।
ताजमहल के बगल में रहने वाले को उसमें सफ़ेद पत्थर की पुरानी इमारत के अलावा शायद और कुछ न दिखे, क्योंकि वो उसे वो रोज दिखता है, और उसे उसमें कुछ नयापन नहीं दिखता। हिमालय पर रहने वालों को हिमालय की खूबसूरती में कुछ नयापन नहीं दिखता होगा।लोग भले ही किसी मूवी स्टार के पीछे पागल हों, पर उस स्टार की बीवी या शौहर को शायद उसमें कुछ नयापन न दिखे। लेकिन किसी छोटे से गाँव के लोगों के मेट्रो या उड़ते जहाज को दूर से देखने में ही नयापन मिल जाता है।
नयेपन की खोज के कारण ही लोग नए रिश्ते, नई फिल्में, नयी जगहें और नयी जॉब खोजते हैं। कुछ लोग इस खोज में पूरी दुनिया का चक्कर लगा आते हैं। और कुछ लोग कम्प्युटर का वालपेपर बदलकर ही इस नयेपन का एहसास कर लेते हैं। अपनी-अपनी तबीयत है, पर खोज तो एक ही है।
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