मच्छरों से परेशान होकर कुछ दिनों पहले मैंने अपने कमरे की खिड़की के बाहर जाली लगवा ली। तब से मैं निर्भय होकर खिड़की खोलकर कमरे में रहता हूँ। आज सुबह जब मैं दरवाजे को खोलकर बाहर गया तो एक दृश्य देखकर मेरा दिल पसीज गया।
कम से कम भी तो पचास मच्छर वहाँ जाली पर और जाली के बाहर दीवार पर बैठे थे। मुझे ऐसा लगा कि मेरे आते ही वो मुझे एकटक देखने लगे। मैं उनकी नन्ही आँखें नहीं देख सकता था, पर उनकी बेबसी मेरे अंतरात्मा को टेलीपैथी के जरिए छू रही थी। मुझे अपने आप पर ग्लानि होने लगी।
इस ठंड भरी रात में मैंने उनसे उनका आसरा और भोजन दोनों ही छीन लिया था। अभी कुछ दिनों पहले तक वो, या उनके पूर्वज, बड़े आराम से रातों में मेरी रजाई के कोनों में सो रहे होते थे और मौका मिलने पर मेरे चेहरे पर आराम से बैठकर सेवेन-कोर्स डिनर करते थे। लेकिन समय का पहिया घूमा, और एक जाली ने उन्हें, आशियाने और बिरयानी, दोनों से बेदखल कर दिया।
उनका खलनायक कौन था? मैं था।
सोचता हूँ कि जाली हटा दूँ। मेरा क्या ही बिगड़ जाएगा अगर मेरे रक्त की कुछ बूंदें कई नन्हे और बेजुबान प्राणियों की भूख मिटा सकें। लेकिन फिर याद आता है कि मैं उनके कारण रात भर सो नहीं पाता। रात्रि के तीसरे पहर में तालियाँ बजाते रहता हूँ।
पर क्या करूँ? इंसान हूँ न! मुझे अपनी नींद किसी की भूख-प्यास से ज्यादा जरूरी लगती है।
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