शाम में किसी
पार्क में चले जाइए। छोटे-छोटे बच्चे खेलते हुये दिख जाते हैं। कितने खुश दिखते हैं
वो! दरअसल सारे बच्चे खुश ही होते हैं। फिर उनको दुखी बनाने की ट्रेनिंग शुरू हो जाती
है। और ये शुभ काम हम बड़े लोग उन्हें परिपक्व (mature) बनाने की आड़ में करते हैं। हमारा तरीका बड़ा ही आसान है, और ये पिछली
सैकड़ों पुश्तों से अचूक परिणाम दे रहा है।
इस तरीके का पहला
चरण है, उन बच्चों में
तरह-तरह का डर बिठाना। ‘पढ़ो नहीं तो फेल हो जाओगे।‘ ‘स्कूल में ध्यान दो नहीं तो बड़े होने पर बेरोजगार बन जाओगे।‘ ‘केवल इधर-उधर
शैतानी करते हो। क्या होगा तुम्हारा?’ ‘बारिश में खेलोगे तो बीमार पड़ जाओगे।‘ इस तरह की बातें
दिन-रात उनके कानों में ठूंस-ठूंस कर हम यह निश्चित कर लेते हैं कि डर के बीज उनके
दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाएँ और ज़िंदगी भर
इनसे तरह-तरह की चिंता और परेशानी की फसलें उगें और लहलहाती रहें। जब बच्चे चिंता करने
लगें, उनके मन में
बेपनाह डर बैठने लगे तो हमें लगता है उनका सही मानसिक विकास हो रहा है। अगर बच्चे को
चिंता न हो तो हमारी खुद की चिंता चार गुणी बढ़ जाती है।
दूसरा चरण है, बच्चों को वर्तमान
पल से निकालकर अतीत और भविष्य में धकेलना। किसी भी छोटे बच्चे को ध्यान से देखिये।
वो जो भी काम करता है, उसमें पूरी तरह खोया रहता है। खेलता है तो बस खेलता है। चित्र
बनाता है तो बस चित्र बनाता है। टीवी पर डोरेमोन देखता है तो सिर्फ डोरेमोन दिखता है।
लेकिन हमसे उसका यह तरीका बर्दाश्त नहीं होता। हमें लगता है कि ज़िंदगी में इतनी परेशानियाँ
हैं तो वो उन्हें अनदेखा करके वर्तमान पल में खुश कैसे रह सकता है। उसने एक साल पहले
खाते समय टोमॅटो सॉस टेबल पर गिरा दिया था। उसे बार-बार उस गलती को याद करना चाहिए।
उए यह भी सोचना चाहिए कि अगर वो धूल-मिट्टी में खेलेगा तो बीमार हो जाएगा, फिर क्लास में
ठीक से नहीं पढ़ पाएगा, उसके बाद टेस्ट में फेल हो जाएगा, फिर वो बाकी
बच्चों से पीछे छूट जाएगा, फिर वो ज़िंदगी भर एक असफल व्यक्ति बनकर रह जाएगा। हम बच्चे
को सिखाते हैं कि किसी काम को पूरे मनोयोग से करना और वर्तमान पल में रहना बेवकूफी है, और अतीत की किसी
घटना को बार-बार याद करना एवं भविष्य की चिंता में खून जलाना एक जीनियस के लक्षण हैं।
फिर आता है तीसरा
चरण – दूसरों से तुलना करना। बच्चे खेलते हैं खेलने के लिए। हम उन्हें सिखाते हैं कि
खेलना चाहिए जीतने के लिए। हर बात में दूसरे से तुलना करो और उसे हराकर दिखाओ। अब चाहे
वो वो मामला पढ़ाई का हो, संस्कारों का हो, अच्छे कपड़े पहनने का हो या फिर फेसबुक पर मिलने वाले likes का हो। ज़िंदगी एक जंग है जिसमें एक तरफ तुम अकेले हो, और दूसरी तरफ
तुम्हारे दोस्त हैं, स्कूल के बच्चे हैं, रिश्तेदारों और पड़ोस के बच्चे हैं, अमेरीका और जॉर्डन
में रहने वाले बच्चे भी है। तुम्हें दुनिया के हर बच्चे को हर चीज में हराना है। उनसे
अपनी तुलना कर-करके अपनी खुशी को स्वाहा करना है। बड़े होने पर ये आदत नए-नए रूप लेती
है। पहले टेस्ट में आने वाले मार्क्स की तुलना करते थे; फिर ऑफिस में
बाकियों के सैलरी पैकेज से तुलना करते हैं। दुनिया भर में हजार तरह के बेमतलब के अवार्ड
इसी बीमारी के लक्षण हैं। बीमारों की दुनिया में जो अपनी तुलना दूसरों से न करके शांत
रहे, वो दुनिया की
नज़र में असली बीमार है।
ये तो हुये तीन
मुख्य चरण। उनके अलावा भी कई चीजों की बच्चों को ट्रेनिंग देते हैं ताकि उनके दुखी
रहने में कोई कसर न रह जाये। उन्हें हरफनमौला (all-rounder) बनाने के चक्कर में उन्हें जबर्दस्ती सारे स्पोर्ट्स, चित्रकारी, संगीत, थिएटर और 84
हजार कलाओं की ट्यूशन कराते हैं। भाई, दुनिया में सिर्फ एक ही लियोनार्डो द विंची क्यों रहे! हमारा
बच्चा भी तो विंची से कम थोड़े न है। तभी तो पड़ोसियों और रिश्तेदारों को दिखाएंगे कि
हमारा बच्चा सिर्फ हमारा बच्चा नहीं, ओलिम्पिक में मिलने वाला गोल्ड मेडल है जिसे हम गले में लटका
कर घूम सकें। इस तरह हमने बच्चों के प्रेशर में रहने की ट्रेनिंग देते जाते हैं। फिर
हम उन्हें महान लोगों की जीवनगाथा पढ़ाते हैं, और बोलते हैं कि गांधी और लिंकन की तरह बनो। अब उस बच्चे ने
गांधी और लिंकन को देखा तक नहीं। लेकिन उसे गांधी और लिंकन जैसा बनने का टार्गेट मिल
गया है है।
आस-पास खोजो तो
सारी क़िस्मों के लोग मिल जाएँगे ; बेपनाह अमीर मिल जाएँगे, फेमस लोग मिल जाएँगे, ऊंचे ओहदे वाले लोग मिल जाएँगे। लेकिन कोई ऐसा इंसान खोजने
जाओ जिसे देखकर लगे कि वो पूरी तरह से खुश है और जिसे ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं है, तो निराशा ही
हाथ लगेगी। इससे सिद्ध होता है कि हमारी यह ट्रेनिंग किसी कमांडो ट्रेनिंग से नहीं
है, और इसकी सफलता
की दर भी बेजोड़ है। भाई, पाँच हजार सालों से हमने इस ट्रेनिंग को निखारा है, और अब टेक्नालजी
की सहायता से उसे और भी प्रभावकारी बनाते जा रहे हैं।