पेंसिल से लिखने का जो लुत्फ है वो न आज तक मुझे किसी पेन से मिला न किसी कम्प्युटर के कीबोर्ड से। हालांकि पेंसिल से लिखना मेहनत का काम है। उसे बार-बार छीलना पड़ता है। उसकी बार-बार नोक बनानी पड़ती है। और जब वो छिलते-छिलते छोटी हो जाती है तो उसे पकड़ना आसान नहीं होता। लेकिन इसके बावजूद मुझे पेंसिल पसंद है। इसका कारण है पेंसिल का वो गुण जो मुझे बड़ा आध्यात्मिक (spiritual) लगता है, और वो मुझे बार-बार अपनी बार खींचता है।
पेंसिल से जितना लिखो, वो उतनी छोटी होती जाती है। कहाँ जाता है उसका वो हिस्सा जो गायब हो गया? लकड़ी वाला हिस्सा तो चलो किसी कूड़ेदान में गया। लेकिन वो कार्बन वाला हिस्सा? फिर मेरे ध्यान में आया कि वो तो कागज के टुकड़ों पर अभी भी ज़िंदा है। या तो किसी नोट्स के रूप में, किसी कविता के रूप में या फिर किसी स्केचके रूप में। पहले वो एक बेजान पतली सी छड़ (rod) के रूप में था; पर उसने अब कई रूप धारण कर लिए।
अगर वो कार्बन की छड़ मिटने से इंकार करती तो कभी भी कविता, कहानी या चित्र का रूप नहीं ले पाती। लकड़ी के कैदखाने में ही अपनी ज़िंदगी गुजार देती। इसलिए कुछ बनने के लिए कई बार मिटना पड़ता है। अपने पुराने स्वरूप को छोडना पड़ता है।
पाँच रुपये की पेंसिल में अनंत संभावनाएं (possibilities) हैं। लेकिन वो संभावनाएं तभी बाहर आएंगी जब पेंसिल मिटने को तैयार होगी। मिट जाने पर इस बात की गारंटी नहीं है कि वो उन संभावनाओं को साकार कर पाएगी। लेकिन अगर वो मिटने से इंकार करे तो इस बात की पूरी गारंटी है कि वो एक भी संभावना को पूरी नहीं कर पाएगी।
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