Thursday, August 18, 2011

'मेरा कुछ सामान' गीत का भावार्थ


प्रस्तुत गीत सुप्रसिद्ध हिन्दी फिल्म 'इजाज़त' से लिया गया है. इस गीत की लोकप्रियता को ऐसे समझा जा सकता है. हमारे समाज में कई सम्प्रदाय हैं जो विभिन्न देवताओं, पैगम्बर, गुरुओं और मसीहा के अनुयायियों से बने हैं. पर एक सम्प्रदाय ऐसा भी है जो एक गीत के प्रशंसकों से बना है. 'मेरा कुछ सामान' ही वह गीत है. साल-दर-साल गुजरते जा रहे हैं, और यह सम्प्रदाय बड़ा होता जा रहा है.


मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है 
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है

आपने कई लोगों को ब्रेक-अप के बाद अपने प्रेमी/प्रेमिकाओं को उनकी चीजें लौटाते देखा होगा. बड़ा ही कड़वा अनुभव होता है. कल तक जो लोग एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाल घंटों बिताते थे, अब वही लोग कागज़ के टुकड़े पर ली गई और वापस लौटाने वाली चीजों की हिसाब लगा रहे होते हैं. प्रेम के काव्य से पैसों के गणित में पहुँच जाते हैं. 
गुलज़ार जैसा शब्द-शिल्पी ही ऐसे कड़वे अनुभव को बिलकुल अनूठे अंदाज़ में पेश कर सकता है. मिर्च में मिठास ला सकता है. नफरत से भरी आँखों में नमी ला सकता है. . 



सावन के कुछ भींगे-भींगे पल रखे हैं
और मेरे एक ख़त में लिपटी राख पड़ी है
वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो - २

दो तरह के प्रेमी होते हैं - तुच्छ  और उच्च.
तुच्छ प्रेमियों की आसक्ति वस्तुओं में होती हैं. वो यह हिसाब लगाते हैं कि दूसरे से उन्हें क्या-क्या तोहफे मिले! मसलन लाफिंग बुद्ध वाली की-रिंग, सूट-पैंट का कपड़ा, हीरे की अंगूठी, आई-पॉड या क्रेडिट कार्ड.
उच्च प्रेमियों का लगाव अनुभवों में होता है. वो यह देखते हैं कि दूसरे इंसान के साथ उन्होंने कौन-कौन से मीठे पल बिताए, उन्हें कौन सी मधुर यादें मिलीं.  
इस गीत की नायिका एक उच्च प्रेमी है. जब वो अपने प्रेमी से साथ बिठाये उन मधुर पलों को लौटाने की बात कहती है तो साफ़ झलकता है वो इन पलों को फिर से बिताना चाहती है. रिश्ते के टूटने पर उसके मन में नफरत नहीं है, प्यारा सा दर्द है.



पतझड़ है कुछ, है ना
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट
कानों में एक बार पहनकर लौटाई थी
पतझड़ की वो शाख अभी तक कांप रही है
वो शाख अभी तक कांप रही है
वो शाख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो - २

एक प्यारे रिश्ते का बसंत तो प्यारा होता है ही, साथ ही पतझड़ की भी सुन्दरता कम नहीं होती. जब रिश्ता थोड़े कठिन वक़्त से गुजर रहा होता है, तब छोटे- मोटे झगड़ों का स्वर दिलों में प्रेम को बढाता है. बढ़ती दूरी कई बार नज़दीकी लाने वाला एक क़दम साबित होती है. यहाँ प्रेमिका उन्ही झगड़ों को याद कर रही है. वह उन्हें भी वापस चाहती है. 



एक अकेली छतरी में जो आधे-आधे भींग रहे थे
आधे गीले, आधे सूखे, सूखा तो मैं ले आई थी
गीला मन शायद बिस्तर के पास पड़ा हो
वो भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो

यहां प्रेमिका उन कठिन पलों को याद कर रही है जो उन्होंने एक दूसरे का साथ देते बिताए थे. वो बोलती है कि अपने प्रेमी का दिया प्यार तो वो ले आयी थी, पर अपने दुखों को उसके पास छोड़ आयी थी. अब वह अपने दुःख वापस चाहती है. वो नहीं चाहती कि उसका प्रेमी उन्हें देखकर दुखी हो.



एक सौ सोलह चाँद की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल
गीली मेहंदी की खुशबू कुछ, झूठ-मूठ के शिकवे कुछ
झूठ-मूठ के वादे भी कुछ याद करा दूं
सब भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो

अब प्रेमिका मिलन की रातों को याद कर रही है. प्रेमी के शरीर पर तिल उसके अन्दर प्रेम-क्रीडा की लालसा को जगाता था. यहाँ रिश्ते में शारीरिक सामीप्य का पक्ष उजागर हो रहा है. प्रेमिका उन यामिनियों को फिर से बिताना चाहती है. नहीं निभाये गए वादों को फिर से सुनना चाहती है. कई वादे निभाने के लिए नहीं. बल्कि दूसरे इंसान में एक मीठी आस जगाने के लिए किये जाते हैं.



एक इजाज़त दे दो बस जब इसको दफ़नाउंगी 
मैं भी वहाँ सो जाउंगी, मैं भी वहाँ सो जाउंगी

अंत में प्रेमिका निराश दिखती है. शायद उसे अहसास हो गया है कि वो बिताये पल वापस नहीं आने वाले. वह उन्हें हमेशा के लिए ख़त्म कर देना चाहती है. साथ ही खुद भी ख़त्म हो जाना चाहती है. प्रेम के साथ जीवन का अंत!


कहते हैं, एक तस्वीर हज़ार शब्दों के बराबर होती है. पर इस गीत का एक-एक शब्द हज़ार तस्वीरों के बराबर है. और यह तस्वीरें वक़्त के साथ धूमिल नहीं पड़तीं. हम कितनी भी बार इस गीत को सुन लें, वो तस्वीरें बार-बार नए रंगों में हमारी आँखों में उभरती रहती हैं. 



- आलोक रंजन 
(गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर) 

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